कुछ भी 'खामोश-सा' नही होता
कुछ भी 'खामोशी' से नही होता
'खामोशी' ब्रह्म है एक, अपने भीतर एक चीखती और चिल्लाती हुई शोर को दबाए.....
तुम भी तो, 'खामोशी' से, दबे पाव.....जा रहे थे
है ना !!
अपने पीछे, सब छोड़ते हुए.....
एक थमने को बेकरार आँसू की कतार
बारीकी से साथ में गुज़ारे लम्हात
परछाईयों को टटोलते से दो हाथ
रेत पे फिसलते हुए अनगिनत अरमान
तितलियों जैसे पक्के रंगों में उभरते ख्वाब
तेरी खुश्बू समेटे दरो-दीवार
और.......
मेरी धड़कानों से नही, तुम्हारे इंतज़ार के कदमों से चलती हुई धीमी-धीमी सी साँस
'खामोशी' से जलता, पिघलता सा...
शांत प्रतीत होता यह दीप भी....
ब्रह्म है कोई....
अपने भीतर बहुत कुछ समेटे हुए....
चुप-चाप....!!
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1 comment:
wah..bahut khoob
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